Meriya vidroh | मेरिया आदिवासी विद्रोह 1842

इतिहास में अगर हम जब भी बात करते हैं विद्रोह या आंदोलन की तो हमारे मन में ऐसा ही ख्याल आता है कि कुछ क्रांतिकारी पुरुष कुछ अच्छे काम या देश के हित में या इंसानियत के हित में काम किये और अपने जान तक न्यौछावर कर दिए थे।

Meriya vidroh,मेरिया आदिवासी विद्रोह 1842

जी हाँ आप बिलकुल सही सोच रहे हैं लेकिन इन सबसे एक अलग स्टोरी भी है जिसके बारे में आज हमलोग जानने वाले हैं इतिहास में कुछ ऐसे विद्रोह हुए हैं जो बेहद चौकाने वाले थे,जिसमे वहां के आम जनता ऐसे परंपरा के समर्थन में थे जो गलत था।

आईये इसे विस्तार से समझते हैं -

ये कहानी है छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर संभाग स्थित दंतेवाड़ा जिले की उस समय ये जिला नहीं बना था परन्तु ये  बस्तर क्षेत्र के अंतर्गत आता था। छत्तीसगढ़ में इस क्षेत्र में अधिक जनसँख्या में आदिवासी समुदाय के लोग यहाँ निवास करते हैं।

Meriya vidroh,मेरिया आदिवासी विद्रोह 1842

ये कहानी शुरू होती है सन 1842 में, जब बस्तर क्षेत्र में राजा भूपाल देव वहां के शासक हुआ करते थे।जो कि बस्तर क्षेत्र के काकतीय वंश के वंशज थे, जिसे चालुक्य वंश भी कहा जाता है और ये शासक अंगेजों और मराठाओं के अधीन थे।

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में स्थित एक मंदिर है जिसे दंतेश्वरी मंदिर के नाम से जाना जाता है,और इसी मंदिर में माता दंतेश्वरी के अलावा भी दो अन्य देवताओं की भी  पूजा किया जाती थी और इन्ही देवताओं को हर साल छोटे बच्चों की बलि चढ़ा दिया जाता था।

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और ये सब इसीलिए किया जाता था क्योंकि वहां के लोकल आदिवासिओं का मानना था कि देवता को बलि चढाने से हमारे गांव में सुख -शांति बना रहता है और गांव में अच्छे फसल,लोगों का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। ये परंपरा कई सालों से चलता रहा था।

लेकिन यह क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन था,जब यह बात जब अंग्रेजों को पता चला तो वे आश्चर्य चकित हो गए, और यह बात उन्हें गलत लगी क्योंकि छोटे छोटे बच्चों की बलि चढ़ा दी जाती थी ऐसे बच्चे जिन्हे ठीक से बोलना तक नहीं आता था उन्हें मार दिया जाता था।

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और तभी इस बलि प्रथा की जाँच के लिए एक अंग्रेज को भेजा जाता है जिसका नाम मैकफर्सल था। जब ये बात सच निकला तो अंग्रेजों के द्वारा इस बलि प्रथा को बंद करने का प्रयाश किया गया, परन्तु जब ये बात वहां स्थित आदिवासियों को पता चला तो वहां के सारे लोग और तो और उस मंदिर के पुजारी समेत सभी लोग अंग्रेजों के इस प्रस्ताव का विरोध करने लगे, इन सबका एक नेतृत्वकर्ता था जिसका नाम था हिड़मा मांझी। 

वहां स्थित सभी लोग का कहना था कि इस प्रथा को बंद नहीं करेंगे। परन्तु इस प्रथा को बंद करने का प्रयास पहला नहीं था इससे पहले भी नागपुर क्षेत्र में स्थित भोंसला शासक के द्वारा भी कई बार प्रयास किया गया था परन्तु वे असफल हो गए थे।

ये विद्रोह 1842 में शुरू हुआ था और आखिरकार सन 1863 में एक अंग्रेज अधिकारी कैम्पबेल के द्वारा इस विदोह को दमन या अंत किया गया।

परन्तु इस विद्रोह को अंत करने का असली श्रेय दीवान वामन राव और रायपुर के तहसीलदार शेर सिंह को जाता है। इन दोनों को कैम्पबेल के द्वारा ही नियुक्त किया गया था क्योंकि वहां के  आदिवासियों को समझना और समझाना अंग्रेजों की बस की बात नहीं थी।

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और आख़िरकार 21 साल बात इस प्रथा को बंद किया गया, वहां के आदिवासियों को भी समझ में गया कि ये कही कही उन्ही के लोगों का नुकसान हो रहा था।

इस प्रथा में जिस भी बच्चे को बलि दी जाती थी उसे लोग मेरिया कहते थे और इसीलिए इस विद्रोह का नाम भी मेरिया विद्रोह पड़ा।

इस मेरिया विद्रोह के बारे में आपकी क्या सोच है कमैंट्स में अपनी राय जरूर दें। 


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